चोटी की पकड़–96
तीस
रुस्तम बुआ को लेकर चला। रात के दस के बाद का समय। गढ़ सुनसान। मर्दाना बाग़ से चला। बुआ को शंका हुई। फिर मिट गई।
"देखती हो दो तलवारें हैं?" रुस्तम ने प्रेमी गले से पूछा।
"हाँ," शरमाकर बुआ ने कहा।
"एक तुमको बाँधनी है।"
"हाँ?"
"बाँधना आता है?"
"नहीं।" "हमी बाँधेगे। सुना है?"
"हाँ।"
"इसका मतलब समझ में आया?"
बुआ लजा गईं। सामने आमों के पेड़ थे। रुस्तम बढ़ा। एक की झुकी डाल पर दोनों तलवारें टाँग दीं।
"यहाँ सिर्फ हम हैं और तुम।"
बुआ शरमायीं। रुस्तम का पुरुष पूरी शक्ति पर था। कहा, "उस रोज़ नहाकर तुम जैसी निकलीं, वैसा ही हो जाना है।"
बुआ का हाथ रुका। जी ऊबा।
रुस्तम ने पूछा, "तालाब में और लोग थे, वे क्यों थे?"
"हमको नहीं मालूम।"
आवाज से रुस्तम समझ गया कि जमादार का कहना दुरुस्त; वे फँसाये गए, अपनी तबियत से नहीं गए।
घबराया कि इसका धर्म बिगाड़ा तो बुरा हाल न हो; फिर सोचा मुन्ना का इशारा कुछ ऐसा ही है।
कहा, "हम वे हैं जिनके बहुत-से बीवियाँ होती हैं?"
"यह हमारे यहाँ नहीं?"
"तुमको आज हमारी बीवी बनना होगा।"
"मैं बीवी नहीं बनती।"
"तुमने उससे कुछ कहा, उसकी बात मानी?"
"जबरदस्ती कहलाने से कोई कहना है या मानना।"
"लेकिन हमारे साथ के लिए तुम बात हार चुकी हो।"
"मैं बात नहीं हारी।"